बिखरे हुए बाल,सूजी हुई आँखें,कमीज़ पर लगे हुए भोजन के धब्बे, चटकती धूप के आक्रमण से निकला हुआ पसीना और उसकी बू एक अलग माहौल पैदा कर रही थी। ये तस्वीर गवाही देती है की “बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ” का नारा सिर्फ तकरीरों में ही मौजूद हैं।
पूरी तरह से अभी ज़मीन पर नहीं आया है। चार दिनों के लिए दिल्ली से गाँव आया था। आचनक एक दिन खेतों में जाने की बहुत ज़ोर से हूक उठती है। आज बीस साल का हो गया हूँ पापा ने कभी नहीं कहा की खेत में आकर कुछ काम कर दो या कुछ मदद कर दो। इसकी कई वजह हैं।आज किसानों की जो हालत है उसको देखते हुए तो बिलकुल भी नहीं चाहते की मैं खेती किसानी करूं।
बहरहाल ये जो बच्ची है इसका नाम प्रियंका है। लगभग 11-12 साल की होगी। उससे उम्र पूछी उसको मालूम नहीं था। माँ-बाप भी मज़दूरी ही करते हैं। ये किस जनजाति से आती है इसका सही मालूम नहीं है। बुंदेलखंड के इलाकों में उन्हें “राऊत” कहा जाता है। आज से एक दो साल बाद ये परिपक्वता के सीढ़ियों पर चढ़ने लगेगी। तेरह-चौदह की उम्र से मासिक धर्म शुरू हो जाएगा।
मैं जब खेत में पहुँचा तो ये धान के आसपास उग आया फालतू चारा उखाड़ रही थी और साथ में मेरे पापा भी थे। देख कर आश्चर्य हुआ। कई तरह के ख्याल आने लगे, कभी लगा की ये बाल मज़दूरी है,लगा की पापा से पूछूं कि इस बच्ची से क्यों काम कराया जा रहा है।
लेकिन उस बच्ची की आंखों की बेचारगी और भूख को याद करता उसका पेट मुझे एक जगह स्तब्ध कर देता है। साथ-साथ मैं भी चारा उखाड़ने लगता हूँ। लगभग डेढ़ घंटे बाद मेरे शरीर ने हार मान ली। लेकिन वोह बच्ची अभी भी लगी हुई थी। पापा ने बताया कि कुछ घंटे पहले इस बच्ची के पिताजी चारा उखाड़ रहे थे। बीमार होने की वजह से वो चले गए। उनके बदले में ये चारा उखाड़ रही है। कभी लगा की मैं इसको बैठने को कह दूं और खुद चारा उखाड़ लूं। विडंबना ये थी कि मैं चारे और धान में ही अंतर नहीं कर पा रहा था। कई मर्तबा सेंगा धान ही उखाड़ मारा। मुझ से ज़्यादा तेज़ और फुर्तीली वो बच्ची मुझसे कई अधिक ज़्यादा इस मामले में जानती थी।
लगभग एक घंटा बीत गया। अभी भी वो चारा उखाड़ रही थी। अपने आप पर बहुत तेज़ गुस्सा आया। मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूं। ना तो मैं उस बच्ची को रोक सकता हूँ और न ही मेरा शरीर अब और काम करने की इजाज़त दे रहा था।
आज़ादी मिले हुए लगभग अठहत्तर साल हो गए हैं। हमारा देश आज भी ऐसी स्तिथि में है ये बर्दास्त करने लायक नहीं लग रहा था। “न्यू इंडिया”, “विश्व गुरु भारत”, फलाना ढिकाना सब धूमिल होते दिखाई दे रहे थे। और आश्चर्य तो तब हुआ जब मालूम पड़ा कि इस बच्ची का बालिग न होने से पहले ही विवाह करा दिया जाएगा। प्रियंका और इसकी तरह तमाम बच्चे और इनकी तथाकथित जनजाति शून्य साक्षरता और जीरो अवेयरनेस के साथ,इसी तरह का जीवन जीते हुए मर जाते हैं।
सवाल आज के हाकिम से भी है और अतीत में रह चुकीं सरकारों से भी है। क्या किया आपने इनके लिए,कब तक ये हाशिए की जिंदगी जीते रहेंगे? इनके पास न पक्की छत है और न रोज़ रोटी का ठिकाना?
कौन लेगा इनकी जिम्मेदारी? माहवारी के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं को अपेक्षित सुविधाएं न मिल पाने के कारण वो इस जद्दोजेहद से झुलस जाती हैं?
कौन बात करेगा गरीबों की, मज़लूमों की? समानता के अधिकार का धुआं उड़ाती ये तस्वीरें भारत की छवि पर करारा तमाचा हैं। धर्म के लिए लड़ने को कह दो एक से एक धनुर्धर पैदा हो जायेंगे। क्या पाप है क्या पुण्य है बताने वाले धर्म के ठेकेदारों ने कितनी बार इनकी आवाज़ बनना चाहा है? क्या हराम है और क्या हलाल? ये बताने वाले वाशिंदे कब इनकी आवाज़ से आवाज़ मिलाएंगे?
ये शिरकियत है, फलानी चीज़ करने से ये हो जायेगा?
जहां दुनिया में किसी भी समाज में धर्म का दबदबा रहा है वहां सबसे ज़्यादा अपराधिक दर,भ्रष्टाचार,गरीबी, भुखमरी है ऐसा क्यों हैं? एक तरफ वेस्टर्न वर्ल्ड पूरे जगत में अपनी तूती बजवा रहा है और आप धर्म धर्म खेलने में लगे हैं। भारतीय समाज में जो रूढ़िवादी और कट्टरपंथी लोग हैं वो अगर किसी के तर्क से सहमत नहीं होते हैं तो फिर वो गाली और हिंसा के रूप में अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं। ये दशा है भारत की।
दुनिया के अल्पविकसित और विकसित देश में अंतर पाओगे की जहां विकास है वहां नारी आगे है। कहीं कहीं तो वहां के संसद में भी महिलाओं का संख्याबल ज़्यादा देखने को मिलता है। उनके विश्वविद्यालय भी सर्वश्रेष्ठ हैं। विश्वभर के लोग वहां पढ़ने जा रहे हैं। अल्पविकसित देशों में एक बात सामान्य मिलेगी वहां नारी पीछे होगी और वहां महिला घर में बंद है और कई बार तो परदे के पीछे बंद है। ये दुनिया के हर पिछड़े हुए मुल्क की निशानी है। जहां महिला को पीछे रखा गया है और बंद रखा गया है वो पूरा राष्ट्र पीछे हो गया है।
प्रियंका और उन जैसे तमाम बच्चों के जज़्बात सिसकियां मारते हुए पूछना चाहते हैं कि कब तक ऐसी “प्रियंका” जन्म लेती रहेंगी और वहीं के वहीं मर जायेंगी।
“Hail Feminism” के नारे लगाने से कुछ नहीं होने वाला है।हमे इन्हे तकरीरों से ज़मीन पर लाना होगा। ये कार्य समाज के हर उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है जो मुल्क को आबाद देखना चाहता है और भुखमरी,कुपोषण से आज़ादी दिलाना चाहता है।
“भूखे पेट भजन न होय” याद कर लीजिए। आखें खोलिए और सिर्फ मुल्क की तरक्की की हिमायत में लग जाइए। महिलाओं और कमज़ोर लोगों को आगे लाने की कोशिश करिए।
बाकी शानदार,जबरदस्त, ज़िंदाबाद बने रहिए।

लेखक
अग्रज यादव
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